गोविन्द बल्लभ पन्त
भारत के गृह मंत्री
पद बहाल - 10 जनवरी 1955 – 7 मार्च 1961
प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु
पूर्वा धिकारी कैलाश नाथ काटजू
उत्तरा धिकारी लाल बहादुर शास्त्री
उत्तर प्रदेश के प्रथम मुख्यमन्त्री
पद बहाल - 26 जनवरी 1950 – 27 दिसम्बर 1954
राज्यपाल होमी मोदी
कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी
पूर्वा धिकारी पद सृजित
उत्तरा धिकारी सम्पूर्णानन्द
संयुक्त प्रान्त के दूसरे मुख्यमन्त्री
पद बहाल - 17 जुलाई 1937 – 2 नवम्बर 1939
पूर्वा धिकारी मुहम्मद अहमद सइद खान
उत्तरा धिकारी रिक्त
पद बहाल - 1 अप्रैल 1946 – 25 जनवरी 1950
पूर्वा धिकारी रिक्त
उत्तरा धिकारी पद खत्म किया गया
जन्म 1 सितम्बर 1887
ग्राम खूंट, अल्मोड़ा जिला, उत्तर-पश्चिमी प्रान्त, ब्रिटिश भारत
(वर्तमान में उत्तराखण्ड, भारत)
मृत्यु 7 मार्च 1961 (उम्र 73)
नई दिल्ली, भारत
राष्ट्रीयता भारतीय
राजनीतिक दल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
बच्चे कृष्ण चन्द्र पन्त, लक्ष्मी और पुष्पा[1]
शैक्षिक सम्बद्धता इलाहाबाद विश्वविद्यालय
पेशा वकालत
धर्म हिन्दू
पंडित गोविन्द बल्लभ पन्त या जी॰बी॰ पन्त (जन्म 1 सितम्बर 1887 - 7 मार्च 1961) प्रसिद्ध स्वतन्त्रता सेनानी और वरिष्ठ भारतीय राजनेता थे। वे उत्तर प्रदेश राज्य के प्रथम मुख्य मन्त्री और भारत के चौथे गृहमंत्री थे। सन 1957 में उन्हें भारतरत्न से सम्मानित किया गया। गृहमंत्री के रूप में उनका मुख्य योगदान भारत को भाषा के अनुसार राज्यों में विभक्त करना तथा हिन्दी को भारत की राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करना था।
प्रारम्भिक जीवन
इनका जन्म 1 सितम्बर 1887 को अल्मोड़ा जिले के श्यामली पर्वतीय क्षेत्र स्थित गाँव खूंट में महाराष्ट्रीय मूल के एक कऱ्हाड़े ब्राह्मण कुटुंब में हुआ। इनकी माँ का नाम गोविन्दी बाई और पिता का नाम मनोरथ पन्त था। बचपन में ही पिता की मृत्यु हो जाने के कारण उनकी परवरिश उनके नाना श्री बद्री दत्त जोशी ने की। 1905 में उन्होंने अल्मोड़ा छोड़ दिया और इलाहाबाद चले गये। म्योर सेन्ट्रल कॉलेज में वे गणित, साहित्य और राजनीति विषयों के अच्छे विद्यार्थियों में सबसे तेज थे। अध्ययन के साथ-साथ वे कांग्रेस के स्वयंसेवक का कार्य भी करते थे। 1907 में बी०ए० और 1909 में कानून की डिग्री सर्वोच्च अंकों के साथ हासिल की। इसके उपलक्ष्य में उन्हें कॉलेज की ओर से "लैम्सडेन अवार्ड" दिया गया।
1910 में उन्होंने अल्मोड़ा आकर वकालत शूरू कर दी। वकालत के सिलसिले में वे पहले रानीखेत गये फिर काशीपुर में जाकर प्रेम सभा नाम से एक संस्था का गठन किया जिसका उद्देश्य शिक्षा और साहित्य के प्रति जनता में जागरुकता उत्पन्न करना था। इस संस्था का कार्य इतना व्यापक था कि ब्रिटिश स्कूलों ने काशीपुर से अपना बोरिया बिस्तर बाँधने में ही खैरियत समझी।
स्वतन्त्रता संघर्ष में
दिसम्बर 1921 में वे गान्धी जी के आह्वान पर असहयोग आन्दोलन के रास्ते खुली राजनीति में उतर आये।
9 अगस्त 1925 को काकोरी काण्ड करके उत्तर प्रदेश के कुछ नवयुवकों ने सरकारी खजाना लूट लिया तो उनके मुकदमें की पैरवी के लिये अन्य वकीलों के साथ पन्त जी ने जी-जान से सहयोग किया। उस समय वे नैनीताल से स्वराज पार्टी के टिकट पर लेजिस्लेटिव कौन्सिल के सदस्य भी थे। 1927 में राम प्रसाद 'बिस्मिल' व उनके तीन अन्य साथियों को फाँसी के फन्दे से बचाने के लिये उन्होंने पण्डित मदन मोहन मालवीय के साथ वायसराय को पत्र भी लिखा किन्तु गान्धी जी का समर्थन न मिल पाने से वे उस मिशन में कामयाब न हो सके। 1928 के साइमन कमीशन के बहिष्कार और 1930 के नमक सत्याग्रह में भी उन्होंने भाग लिया और मई 1930 में देहरादून जेल की हवा भी खायी।
मुख्यमन्त्री कार्यकाल
17 जुलाई 1937 से लेकर 2 नवम्बर 1939 तक वे ब्रिटिश भारत में संयुक्त प्रान्त अथवा यू०पी० के पहले मुख्य मन्त्री बने। इसके बाद दोबारा उन्हें यही दायित्व फिर सौंपा गया और वे 1 अप्रैल 1946 से 15 अगस्त 1947 तक संयुक्त प्रान्त (यू०पी०) के मुख्य मन्त्री रहे। जब भारतवर्ष का अपना संविधान बन गया और संयुक्त प्रान्त का नाम बदल कर उत्तर प्रदेश रखा गया तो फिर से तीसरी बार उन्हें ही इस पद के लिये सर्व सम्मति से उपयुक्त पाया गया। इस प्रकार स्वतन्त्र भारत के नवनामित राज्य के भी वे 26 जनवरी 1950 से लेकर 27 दिसम्बर 1954 तक मुख्य मन्त्री रहे।
गृह मंत्री कार्यकाल
सरदार पटेल की मृत्यु के बाद उन्हें गृह मंत्रालय भारत सरकार के प्रमुख का दायित्व दिया गया। भारत के गृह मंत्री रूप में उनका कार्यकाल सन 1955 से लेकर 1961 में उनकी मृत्यु होने तक रहा।
मृत्यु
7 मार्च 1961 को हृदयाघात से जूझते हुए उनकी मृत्यु हो गयी। उस समय वे भारत सरकार में केन्द्रीय गृह मन्त्री थे। उनके निधन ।