इन्दिरा गांधी
भारत की प्रथम महिला प्रधानमंत्री
पद बहाल - 14 जनवरी 1980 – 31 अक्टूबर 1984
राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी
ज्ञानी जैल सिंह
पूर्वा धिकारी चौधरी चरण सिंह
उत्तरा धिकारी राजीव गाँधी
पद बहाल - 24 जनवरी 1966 – 24 मार्च 1977
राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन
ज़ाकिर हुसैन
वराहगिरी वेंकट गिरी (कार्यवाहक)
मोहम्मद हिदायतुल्ला (कार्यवाहक)
वराहगिरी वेंकट गिरी
फ़ख़रुद्दीन अली अहमद
बासप्पा दनप्पा जत्ती (कार्यवाहक)
सहायक मोरारजी देसाई
पूर्वा धिकारी गुलजारीलाल नन्दा (कार्यवाहक)
उत्तरा धिकारी मोरारजी देसाई
भारत की विदेश मंत्री
पद बहाल - 9 मार्च 1984 – 31 अक्टूबर 1984
पूर्वा धिकारी नरसिंह राव
उत्तरा धिकारी राजीव गाँधी
पद बहाल - 22 अगस्त 1967 – 14 मार्च 1969
पूर्वा धिकारी महोम्मेदाली करीम चागला
उत्तरा धिकारी दिनेश सिंह
भारत की रक्षा मंत्री
पद बहाल
14 जनवरी1980 – 15 जनवरी 1982
पूर्वा धिकारी चिदम्बरम् सुब्रह्मण्यम्
उत्तरा धिकारी रामस्वामी वेंकटरमण
पद बहाल
30 नवम्बर 1975 – 20 दिसम्बर 1975
पूर्वा धिकारी सरदार स्वर्ण सिंह
उत्तरा धिकारी बंसी लाल
भारत की गृहमंत्री
पद बहाल
27 जून 1970 – 4 फ़रवरी 1973
पूर्वा धिकारी यशवंतराव चौहान
उत्तरा धिकारी उमाशंकर दीक्षित
भारत की वित्त मंत्री
पद बहाल
16 जुलाई 1969 – 27 जून 1970
पूर्वा धिकारी मोरारजी देसाई
उत्तरा धिकारी यशवंतराव चौहान
जन्म 19 नवम्बर 1917
इलाहाबाद, ब्रिटिश भारत
मृत्यु 31 अक्टूबर 1984 (उम्र 66)
नई दिल्ली, भारत
राजनीतिक दल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
जीवन संगी फिरोज गांधी
संबंध जवाहरलाल नेहरू (पिता)
कमला नेहरू (माता)
बच्चे राजीव
संजय
शैक्षिक सम्बद्धता सोमरविल कॉलेज, ऑक्सफोर्ड
इन्दिरा प्रियदर्शिनी गाँधी (जन्म उपनाम: नेहरू) (19 नवंबर 1917-31 अक्टूबर 1984) वर्ष 1966 से 1977 तक लगातार 3 पारी के लिए भारत गणराज्य की प्रधानमन्त्री रहीं और उसके बाद चौथी पारी में 1980 से लेकर 1984 में उनकी राजनैतिक हत्या तक भारत की प्रधानमंत्री रहीं। वे भारत की प्रथम और अब तक एकमात्र महिला प्रधानमंत्री रहीं।
प्रारंभिक जीवन
इन्दिरा का जन्म 19 नवम्बर 1917 को राजनीतिक रूप से प्रभावशाली नेहरू परिवार में हुआ था। इनके पिता जवाहरलाल नेहरू और इनकी माता कमला नेहरू थीं। इन्दिरा को उनका "गांधी" उपनाम फिरोज़ गाँधी से विवाह के पश्चात मिला था। इनका मोहनदास करमचंद गाँधी से न तो खून का और न ही शादी के द्वारा कोई रिश्ता था। इनके पितामह मोतीलाल नेहरू एक प्रमुख भारतीय राष्ट्रवादी नेता थे। इनके पिता जवाहरलाल नेहरू भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के एक प्रमुख व्यक्तित्व थे और आज़ाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री रहे।
1934–35 में अपनी स्कूली शिक्षा पूरी करने के पश्चात इन्दिरा ने शान्तिनिकेतन में रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा निर्मित विश्व-भारती विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ही इन्हे "प्रियदर्शिनी" नाम दिया था। इसके पश्चात यह इंग्लैंड चली गईं और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा में बैठीं परन्तु यह उसमे विफल रहीं और ब्रिस्टल के बैडमिंटन स्कूल में कुछ महीने बिताने के पश्चात 1937 में परीक्षा में सफल होने के बाद इन्होने सोमरविल कॉलेज ऑक्सफोर्ड में दाखिला लिया। इस समय के दौरान इनकी अक्सर फिरोज़ गाँधी से मुलाकात होती थी जिन्हे यह इलाहाबाद से जानती थीं और जो लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स में अध्ययन कर रहे थे। अंततः 16 मार्च 1942 को आनंद भवन इलाहाबाद में एक निजी आदि धर्म ब्रह्म-वैदिक समारोह में इनका विवाह फिरोज़ से हुआ।
ऑक्सफोर्ड से वर्ष 1941 में भारत वापस आने के बाद वे भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में शामिल हो गयीं। 1950 के दशक में वे अपने पिता के भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में कार्यकाल के दौरान गैरसरकारी तौर पर एक निजी सहायक के रूप में उनके सेवा में रहीं। अपने पिता की मृत्यु के बाद सन् 1964 में उनकी नियुक्ति एक राज्यसभा सदस्य के रूप में हुई। इसके बाद वे लालबहादुर शास्त्री के मंत्रिमंडल में सूचना और प्रसारण मत्री बनीं।
लालबहादुर शास्त्री के आकस्मिक निधन के बाद तत्कालीन काँग्रेस पार्टी अध्यक्ष के कामराज इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाने में निर्णायक रहे। गाँधी ने शीघ्र ही चुनाव जीतने के साथ-साथ जनप्रियता के माध्यम से विरोधियों के ऊपर हावी होने की योग्यता दर्शायी। वह अधिक बामवर्गी आर्थिक नीतियाँ लायीं और कृषि उत्पादकता को बढ़ावा दिया। 1971 के भारत-पाक युद्ध में एक निर्णायक जीत के बाद की अवधि में अस्थिरता की स्थिती में उन्होंने सन् 1975 में आपातकाल लागू किया। उन्होंने एवं काँग्रेस पार्टी ने 1977 के आम चुनाव में पहली बार हार का सामना किया। सन् 1980 में सत्ता में लौटने के बाद वह अधिकतर पंजाब के अलगाववादियों के साथ बढ़ते हुए द्वंद्व में उलझी रहीं जिसमे आगे चलकर सन् 1984 में अपने ही अंगरक्षकों द्वारा उनकी राजनैतिक हत्या हुई।
प्रारम्भिक जीवन
उनकी परवरिश अपनी माँ की सम्पूर्ण देखरेख में जो बीमार रहने के कारण नेहरू परिवार के गृह सम्बन्धी कार्यों से अलग रही होने से इंदिरा में मजबूत सुरक्षात्मक प्रवृत्तिओं के साथ साथ एक निःसंग व्यक्तित्व विकसित हुआ। उनके पितामह और पिता का लगातार राष्ट्रीय राजनीती में उलझते जाने ने भी उनके लिए साथिओं से मेलजोल मुश्किल कर दिया। उनकी अपनी बुओं (पिता की बहनों) के साथ जिसमे विजयाल्क्ष्मी पंडित भी थीं मतविरोध रही और यह राजनैतिक दुनिया में भी चलती रही।
इन्दिरा ने युवा लड़के-लड़कियों के लिए वानर सेना बनाई जिसने विरोध प्रदर्शन और झंडा जुलूस के साथ साथ कांगेस के नेताओं की मदद में संवेदनशील प्रकाशनों तथा प्रतिबंधित सामग्रीओं का परिसंचरण कर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में छोटी लेकिन उल्लेखनीय भूमिका निभाई थी। प्रायः दोहराए जानेवाली कहानी है कि उन्होंने पुलिस की नजरदारी में रहे अपने पिता के घर से बचाकर एक महत्वपूर्ण दस्तावेज जिसमे 1930 दशक के शुरुआत की एक प्रमुख क्रांतिकारी पहल की योजना थी को अपने स्कूलबैग के माध्यम से बहार उड़ा लिया था।
सन् 1936 में उनकी माँ कमला नेहरू तपेदिक से एक लंबे संघर्ष के बाद अंततः स्वर्गवासी हो गईं। इंदिरा तब 18 वर्ष की थीं और इस प्रकार अपने बचपन में उन्हें कभी भी एक स्थिर पारिवारिक जीवन का अनुभव नहीं मिल पाया था। उन्होंने प्रमुख भारतीय यूरोपीय तथा ब्रिटिश स्कूलों में अध्यन किया जैसे शान्तिनिकेतन बैडमिंटन स्कूल औरऑक्सफोर्ड।
1930 दशक के अन्तिम चरण में ऑक्सफ़र्ड विश्वविद्यालय इंग्लैंड के सोमरविल्ले कॉलेज में अपनी पढ़ाई के दौरान वे लन्दन में आधारित स्वतंत्रता के प्रति कट्टर समर्थक भारतीय लीग की सदस्य बनीं।
महाद्वीप यूरोप और ब्रिटेन में रहते समय उनकी मुलाक़ात एक पारसी कांग्रेस कार्यकर्ता फिरोज़ गाँधी से हुई और अंततः 16 मार्च 1942 को आनंद भवन इलाहाबाद में एक निजी आदि धर्मं ब्रह्म-वैदिक समारोह में उनसे विवाह किया ठीक भारत छोडो आन्दोलन की शुरुआत से पहले जब महात्मा गांधी और कांग्रेस पार्टी द्वारा चरम एवं पुरजोर राष्ट्रीय विद्रोह शुरू की गई। सितम्बर 1942 में वे ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा गिरफ्तार की गयीं और बिना कोई आरोप के हिरासत में डाल दिये गये थे। अंततः 243 दिनों से अधिक जेल में बिताने के बाद उन्हें 13 मई 1943 को रिहा किया गया। 1944 में उन्होंने फिरोज गांधी के साथ राजीव गांधी और इसके दो साल के बाद संजय गाँधी को जन्म दिया।
सन् 1947 के भारत विभाजन अराजकता के दौरान उन्होंने शरणार्थी शिविरों को संगठित करने तथा पाकिस्तान से आये लाखों शरणार्थियों के लिए चिकित्सा सम्बन्धी देखभाल प्रदान करने में मदद की। उनके लिए प्रमुख सार्वजनिक सेवा का यह पहला मौका था।
गांधीगण बाद में इलाहाबाद में बस गये जहाँ फिरोज ने एक कांग्रेस पार्टी समाचारपत्र और एक बीमा कंपनी के साथ काम किया। उनका वैवाहिक जीवन प्रारम्भ में ठीक रहा लेकिन बाद में जब इंदिरा अपने पिता के पास नई दिल्ली चली गयीं उनके प्रधानमंत्रित्व काल में जो अकेले तीन मूर्ति भवन में एक उच्च मानसिक दबाव के माहौल में जी रहे थे वे उनकी विश्वस्त सचिव और नर्स बनीं। उनके बेटे उसके साथ रहते थे लेकिन वो अंततः फिरोज से स्थायी रूप से अलग हो गयीं यद्यपि विवाहित का तगमा जुटा रहा।
जब भारत का पहला आम चुनाव 1951 में समीपवर्ती हुआ इंदिरा अपने पिता एवं अपने पती जो रायबरेली निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़रहे थे दोनों के प्रचार प्रबंध में लगी रही। फिरोज अपने प्रतिद्वंदिता चयन के बारे में नेहरू से सलाह मशविरा नहीं किया था और यद्दपि वह निर्वाचित हुए दिल्ली में अपना अलग निवास का विकल्प चुना। फिरोज ने बहुत ही जल्द एक राष्ट्रीयकृत बीमा उद्योग में घटे प्रमुख घोटाले को उजागर कर अपने राजनैतिक भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाकू होने की छबि को विकसित किया जिसके परिणामस्वरूप नेहरू के एक सहयोगी वित्त मंत्री को इस्तीफा देना पड़ा।
तनाव की चरम सीमा की स्थिति में इंदिरा अपने पती से अलग हुईं। हालाँकि सन् 1958 में उप-निर्वाचन के थोड़े समय के बाद फिरोज़ को दिल का दौरा पड़ा जो नाटकीय ढ़ंग से उनके टूटे हुए वैवाहिक वन्धन को चंगा किया। कश्मीर में उन्हें स्वास्थोद्धार में साथ देते हुए उनकी परिवार निकटवर्ती हुई। परन्तु 8 सितम्बर 1960 को जब इंदिरा अपने पिता के साथ एक विदेश दौरे पर गयीं थीं फिरोज़ की मृत्यु हुई।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अध्यक्ष
1959 और 1960 के दौरान इंदिरा चुनाव लड़ीं और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष चुनी गयीं। उनका कार्यकाल घटनाविहीन था। वो अपने पिता के कर्मचारियों के प्रमुख की भूमिका निभा रहीं थीं।
नेहरू का देहांत 27 मई 1964 को हुआ और इंदिरा नए प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के प्रेरणा पर चुनाव लड़ीं और तत्काल सूचना और प्रसारण मंत्री के लिए नियुक्त हो सरकार में शामिल हुईं। हिन्दी के राष्ट्रभाषा बनने के मुद्दे पर दक्षिण के गैर हिन्दीभाषी राज्यों में दंगा छिड़ने पर वह चेन्नई गईं। वहाँ उन्होंने सरकारी अधिकारियों के साथ विचारविमर्श किया, समुदाय के नेताओं के गुस्से को प्रशमित किया और प्रभावित क्षेत्रों के पुनर्निर्माण प्रयासों की देखरेख की। शास्त्री एवं वरिष्ठ मंत्रीगण उनके इस तरह के प्रयासों की कमी के लिए शर्मिंदा थे। मंत्री गांधी के पदक्षेप सम्भवत सीधे शास्त्री के या अपने खुद के राजनैतिक ऊंचाई पाने के उद्देश्य से नहीं थे। कथित रूप से उनका मंत्रालय के दैनिक कामकाज में उत्साह का अभाव था लेकिन वो संवादमाध्यमोन्मुख तथा राजनीति और छबि तैयार करने के कला में दक्ष थीं।
"1965 के बाद उत्तराधिकार के लिए श्रीमती गांधी और उनके प्रतिद्वंद्वियों केंद्रीय कांग्रेस पार्टी नेतृत्व के बीच संघर्ष के दौरान बहुत से राज्य प्रदेश कांग्रेस पार्टी संगठनों से उच्च जाति के नेताओं को पदच्युत कर पिछड़ी जाति के व्यक्तियों को प्रतिस्थापित करतेहुए उन जातिओं के वोट इकठ्ठा करने में जुटगये ताकि राज्य कांग्रेस पार्टी में अपने विपक्ष तथा विरोधिओं को मात दिया जा सके। इन हस्तक्षेपों के परिणामों जिनमें से कुछेक को उचित सामाजिक प्रगतिशील उपलब्धि माने जा सकते हैं तथापि, अक्सर अंतर-जातीय क्षेत्रीय संघर्षों को तीव्रतर बनने के कारण बने।
जब 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध चल रहा था इंदिरा श्रीनगर सीमा क्षेत्र में उपस्थित थी। हालांकि सेना ने चेतावनी दी थी कि पाकिस्तानी अनुप्रवेशकारी शहर के बहुत ही करीब तीब्र गति से पहुँच चुके हैं उन्होंने अपने को जम्मू या दिल्ली में पुनःस्थापन का प्रस्ताव नामंजूर कर दिया और उल्टे स्थानीय सरकार का चक्कर लगाती रहीं और संवाद माध्यमों के ध्यानाकर्षण को स्वागत किया। ताशकंद में सोवियत मध्यस्थता में पाकिस्तान के अयूब खान के साथ शांति समझौते पर हस्ताक्षर करने के कुछ घंटे बाद ही लालबहादुर शास्त्री का निधन हो गया।
तब कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष के. कामराज ने शास्त्री के आकस्मिक निधन के बाद इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
प्रधान मंत्री
विदेश तथा घरेलू नीति एवं राष्ट्रिय सुरक्षा
सन् 1966 में जब श्रीमती गांधी प्रधानमंत्री बनीं कांग्रेस दो गुटों में विभाजित हो चुकी थी श्रीमती गांधी के नेतृत्व में समाजवादी और मोरारजी देसाई के नेतृत्व में रूढीवादी। मोरारजी देसाई उन्हें "गूंगी गुड़िया" कहा करते थे। 1967 के चुनाव में आंतरिक समस्याएँ उभरी जहां कांग्रेस लगभग 60 सीटें खोकर 545 सीटोंवाली लोक सभा में 297 आसन प्राप्त किए। उन्हें देसाई को भारत के भारत के उप प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री के रूप में लेना पड़ा। 1969 में देसाई के साथ अनेक मुददों पर असहमति के बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस विभाजित हो गयी। वे समाजवादियों एवं साम्यवादी दलों से समर्थन पाकर अगले दो वर्षों तक शासन चलाई। उसी वर्ष जुलाई 1969 को उन्होंने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया। 1971 में बांग्लादेशी शरणार्थी समस्या हल करने के लिए उन्होंने पूर्वी पाकिस्तान की ओर से जो अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे थे पाकिस्तान पर युद्ध घोषित कर दिया। 1971 के युद्ध के दौरान राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के अधीन अमेरिका अपने सातवें बेड़े को भारत को पूर्वी पाकिस्तान से दूर रहने के लिए यह वजह दिखाते हुए कि पश्चिमी पाकिस्तान के खिलाफ एक व्यापक हमला विशेष रूप से कश्मीर के सीमाक्षेत्र के मुद्दे को लेकर हो सकती है चेतावनी के रूप में बंगाल की खाड़ीमें भेजा। यह कदम प्रथम विश्व से भारत को विमुख कर दिया था और प्रधानमंत्री गांधी ने अब तेजी के साथ एक पूर्व सतर्कतापूर्ण राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीति को नई दिशा दी। भारत और सोवियत संघ पहले ही मित्रता और आपसी सहयोग संधि पर हस्ताक्षर किए थे जिसके परिणामस्वरूप 1971 के युद्ध में भारत की जीत में राजनैतिक और सैन्य समर्थन का पर्याप्त योगदान रहा।
परमाणु कार्यक्रम
जनवादी चीन गणराज्य से परमाणु खतरे तथा दो प्रमुख महाशक्तियों की दखलंदाजी में रूचि भारत की स्थिरता और सुरक्षा के लिए अनुकूल नहीं महसूस किए जाने के मद्दे नजर, गांधी का अब एक राष्ट्रीय परमाणु कार्यक्रम था। उन्होंने नये पाकिस्तानी राष्ट्रपति ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो को एक सप्ताह तक चलनेवाली शिमला शिखर वार्ता में आमंत्रित किया था। वार्ता के विफलता के करीब पहुँच दोनों राज्य प्रमुख ने अंततः शिमला समझौते पर हस्ताक्षर किए जिसके तहत कश्मीर विवाद को वार्ता और शांतिपूर्ण ढंग से मिटाने के लिए दोनों देश अनुबंधित हुए।
कुछ आलोचकों द्वारा नियंत्रण रेखा को एक स्थायी सीमा नहीं बानाने पर इंदिरा गांधी की आलोचना की गई जबकि कुछ अन्य आलोचकों का विश्वास था की पाकिस्तान के 93,000 युद्धबंदी भारत के कब्जे में होते हुए पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर को पाकिस्तान के कब्जे से निकाल लेना चाहिए था। लेकिन यह समझौता संयुक्त राष्ट्र तथा किसी तीसरे पक्ष के तत्काल हस्तक्षेप को निरस्त किया एवं निकट भविष्य में पाकिस्तान द्वारा किसी बड़े हमले शुरू किए जाने की सम्भावना को बहुत हद तक घटाया। भुट्टो से एक संवेदनशील मुद्दे पर संपूर्ण आत्मसमर्पण की मांग नहीं कर उन्होंने पाकिस्तान को स्थिर और सामान्य होने का मौका दिया।
वर्षों से ठप्प पड़े बहुत से संपर्कों के मध्यम से व्यापार संबंधों को भी पुनः सामान्य किया गया।
स्माइलिंग बुद्धा के अनौपचारिक छाया नाम से 1974 में भारत ने सफलतापूर्वक एक भूमिगत परमाणु परीक्षण राजस्थान के रेगिस्तान में बसे गाँव पोखरण के करीब किया। शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए परीक्षण का वर्णन करते हुए भारत दुनिया की सबसे नवीनतम परमाणु शक्तिधर बन गया।
हरित क्रांति
1960 के दशक में विशेषीकृत अभिनव कृषि कार्यक्रम और सरकार प्रदत्त अतिरिक्त समर्थन लागु होने पर अंततः भारत में हमेशा से चले आ रहे खाद्द्यान्न की कमी को मूलतः गेहूं, चावल, कपास और दूध के सन्दर्भ में, अतिरिक्त उत्पादन में बदल दिया। बजाय संयुक्त राज्य से खाद्य सहायता पर निर्भर रहने के - जहाँ के एक राष्ट्रपति जिन्हें श्रीमती गांधी काफी नापसंद करती थीं (यह भावना आपसी था: निक्सन को इंदिरा "चुड़ैल बुढ़िया" लगती थीं, देश एक खाद्य निर्यातक बन गया। उस उपलब्धि को अपने वाणिज्यिक फसल उत्पादन के विविधीकरण के साथ हरित क्रांति के नाम से जाना जाता है। इसी समय दुग्ध उत्पादन में वृद्धि से आयी श्वेत क्रांति से खासकर बढ़ते हुए बच्चों के बीच कुपोषण से निबटने में मदद मिली। 'खाद्य सुरक्षा' जैसे कि यह कार्यक्रम जाना जाता है 1975 के वर्षों तक श्रीमती गांधी के लिए समर्थन की एक और स्रोत रही।
1960 के प्रारंभिक काल में संगठित हरित क्रांति गहन कृषि जिला कार्यक्रम (आईऐडिपि) का अनौपचारिक नाम था जिसके तहत शहरों में रहनेवाले लोगों के लिए, जिनके समर्थन पर गांधी --यूँ की वास्तव में समस्त भारतीय राजनितिक गहरे रूपसे निर्भरशील रहे थे प्रचुर मात्रा में सस्ते अनाज की निश्चयता मिली। यह कार्यक्रम चार चरणों पर आधारित था:
नई किस्मों के बीज
स्वीकृत भारतीय कृषि के रसायानीकरण की आवश्यकता को स्वीकृती जैसे की उर्वरकों कीटनाशकों, घास -फूस निवारकों, इत्यादि
नई और बेहतर मौजूदा बीज किस्मों को विकसित करने के लिए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सहकारी अनुसंधान की प्रतिबद्धता
भूमि अनुदान कॉलेजों के रूप में कृषि संस्थानों के विकास की वैज्ञानिक अवधारणा,
दस वर्षों तक चली यह कार्यक्रम गेहूं उत्पादन में अंततः तीनगुना वृद्धि तथा चावल में कम लेकिन आकर्षणीय वृद्धि लायी; जबकि वैसे अनाजों के क्षेत्र में जैसेबाजरा, चना एवं मोटे अनाज (क्षेत्रों एवं जनसंख्या वृद्धि के लिए समायोजन पर ध्यान रखते हुए) कम या कोई वृद्धि नहीं हुई--फिर भी इन क्षेत्रों में एक अपेक्षाकृत स्थिर उपज बरकरार रहे।
1971 के चुनाव में विजय और द्वितीय कार्यकाल (1971- 1975)
गाँधी की सरकार को उनकी 1971 के जबरदस्त जनादेश के बाद प्रमुख कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। कांग्रेस पार्टी की आंतरिक संरचना इसके असंख्य विभाजन के फलस्वरूप कमजोर पड़ने से चुनाव में भाग्य निर्धारण के लिए पूरी तरह से उनके नेतृत्व पर निर्भरशील हो गई थी। गांधी का सन् 1971 की तैयारी में नारे का विषय था गरीबी हटाओ। यह नारा और प्रस्तावित गरीबी हटाओ कार्यक्रम का खाका जो इसके साथ आया गांधी को ग्रामीण और शहरी गरीबों पर आधारित एक स्वतंत्र राष्ट्रीय समर्थन देने के लिए तैयार किए गए थे। इस तरह उन्हें प्रमुख ग्रामीण जातियों के दबदबे में रहे राज्य और स्थानीय सरकारों एवं शहरी व्यापारी वर्ग को अनदेखा करने की अनुमति रही थी। और अतीत में बेजुबां रहे गरीब के हिस्से कम से कम राजनातिक मूल्य एवं राजनातिक भार दोनों की प्राप्ति में वृद्धि हुई।
गरीबी हटाओ के तहत कार्यक्रम हालाँकि स्थानीय रूपसे चलाये गये परन्तु उनका वित्तपोषण विकास पर्यवेक्षण एवं कर्मिकरण नई दिल्ली तथा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस दल द्वारा किया गया। "ये कार्यक्रम केंद्रीय राजनैतिक नेतृत्व को समूचे देशभर में नये एवं विशाल संसाधनों के वितरित करने के मालिकाना भी प्रस्तुत किए अंततः गरीबी हटाओ गरीबों के बहुत कम काम आये: आर्थिक विकास के लिए आवंटित सभी निधियों के मात्र 4% तीन प्रमुख गरीबी हटाओ कार्यक्रमों के हिस्से गये और लगभग कोई भी "गरीब से गरीब" तबके तक नहीं पहुँची। इस तरह यद्यपि यह कार्यक्रम गरीबी घटाने में असफल रही इसने गांधी को चुनाव जितानेका लक्ष्य हासिल कर लिया।
एकछ्त्रवाद की ओर झुकाव
गाँधी पर पहले से ही सत्तावादी आचरण के आरोप लग चुके थे। उनकी मजबूत संसदीय बहुमत का व्यवहार कर उनकी सत्तारूढ़ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने संविधान में संशोधन कर केन्द्र और राज्यों के बीच के सत्ता संतुलन को बदल दिया था। उन्होंने दो बार विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्यों को "कानून विहीन तथा अराजक" घोषित कर संविधान के धारा 356 के अंतर्गत राष्ट्रपति शासन लागु कर इनके नियंत्रण पर कब्जा किया था। इसके अलावा संजय गाँधी जो निर्वाचित अधिकारियों की जगह पर गांधी के करीबी राजनैतिक सलाहकार बने थे के बढ़ते प्रभाव पर पि.एन.हक्सर उनकी क्षमता की ऊंचाई पर उठते समय गाँधी के पूर्व सलाहाकार थे ने अप्रसन्नता प्रकट की। उनके सत्तावाद शक्ति के उपयोग की ओर नये झुकाव को देखते हुए जयप्रकाश नारायण सतेन्द्र नारायण सिन्हा और आचार्य जीवतराम कृपालानी जैसे नामी-गिरामी व्यक्तिओं और पूर्व-स्वतंत्रता सेनानियों ने उनके तथा उनके सरकार के विरुद्ध सक्रिय प्रचार करते हुए भारतभर का दौरा किया।
भ्रष्टाचार आरोप और चुनावी कदाचार का फैसला
राज नारायण (जो बार बार रायबरेली संसदीय निर्वाचन क्षेत्र से लड़ते और हारते रहे थे) द्वारा दायर एक चुनाव याचिका में कथित तौर पर भ्रष्टाचार आरोपों के आधार पर 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इन्दिरा गांधी के लोक सभा चुनाव को रद्द घोषित कर दिया। इस प्रकार अदालत ने उनके विरुद्ध संसद का आसन छोड़ने तथा छह वर्षों के लिए चुनाव में भाग लेने पर प्रतिबन्ध का आदेश दिया। प्रधानमन्त्रीत्व के लिए लोक सभा (भारतीय संसद के निम्न सदन) या राज्य सभा (संसद के उच्च सदन) का सदस्य होना अनिवार्य है। इस प्रकार यह निर्णय उन्हें प्रभावी रूप से कार्यालय से पदमुक्त कर दिया।
जब गांधी ने फैसले पर अपील की राजनैतिक पूंजी हासिल करने को उत्सुक विपक्षी दलों और उनके समर्थक उनके इस्तीफे के लिए सामूहिक रूप से चक्कर काटने लगे। ढेरों संख्या में यूनियनों और विरोधकारियों द्वारा किये गये हरताल से कई राज्यों में जनजीवन ठप्प पड़ गया। इस आन्दोलन को मजबूत करने के लिए जयप्रकाश नारायण ने पुलिस को निहत्थे भीड़ पर सम्भब्य गोली चलाने के आदेश का उलंघन करने के लिये आह्वान किया। कठिन आर्थिक दौर के साथ साथ जनता की उनके सरकार से मोहभंग होने से विरोधकारिओं के विशाल भीड़ ने संसद भवन तथा दिल्ली में उनके निवास को घेर लिया और उनके इस्तीफे की मांग करने लगे।
आपातकालीन स्थिति (1975-1977)
गाँधी ने व्यवस्था को पुनर्स्थापित करने के पदक्षेप स्वरुप अशांति मचानेवाले ज्यादातर विरोधियों के गिरफ्तारी का आदेश दे दिया। तदोपरांत उनके मंत्रिमंडल और सरकार द्वारा इस बात की सिफारिश की गई की राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद फैले अव्यवस्था और अराजकता को देखते हुए आपातकालीन स्थिति की घोषणा करें। तदनुसार अहमद ने आतंरिक अव्यवस्था के मद्देनजर 26 जून 1975 को संविधान की धारा- 352 के प्रावधानानुसार आपातकालीन स्थिति की घोषणा कर दी।
डिक्री द्वारा शासन / आदेश आधारित शासन
कुछ ही महीने के भीतर दो विपक्षीदल शासित राज्यों गुजरात और तमिल नाडु पर राष्ट्रपति शासन थोप दिया गया जिसके फलस्वरूप पूरे देश को प्रत्यक्ष केन्द्रीय शासन के अधीन ले लिया गया। पुलिस को कर्फ़्यू लागू करने तथा नागरिकों को अनिश्चितकालीन रोक रखने की क्षमता सौंपी गयी एवं सभी प्रकाशनों को सूचना तथा प्रसारण मंत्रालय के पर्याप्त सेंसर व्यवस्था के अधीन कर दिया गया। इन्द्र कुमार गुजराल एक भावी प्रधानमंत्री ने खुद अपने काम में संजय गांधी की दखलंदाजी के विरोध में सूचना और प्रसारण मंत्रीपद से इस्तीफा दे दिया। अंततः आसन्न विधानसभा चुनाव अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिए गए तथा सम्बंधित राज्य के राज्यपाल की सिफारिश पर राज्य सरकार की बर्खास्तगी के संवैधानिक प्रावधान के अलोक में सभी विपक्षी शासित राज्य सरकारों को हटा दिया गया।
गांधी ने स्वयं के असाधारण अधिकार प्राप्ति हेतु आपातकालीन प्रावधानों का इस्तेमाल किया। यह भी आरोपित होता है कि वह आगे राष्ट्रपति अहमद के समक्ष वैसे आध्यादेशों के जारी करने का प्रस्ताव पेश की जिसमे संसद में बहस होने की जरूरत न हो और उन्हें आदेश आधारित शासन की अनुमति रहे।
साथ ही साथ गांधी की सरकार ने प्रतिवादिओं को उखाड़ फेंकने तथा हजारों के तादाद में राजनीतिक कार्यकर्ताओं के गिरिफ्तारी और आटक रखने का एक अभियान प्रारम्भ किया जग मोहन के पर्यवेक्षण में जो की बाद में दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर रहे जामा मस्जिद के आसपास बसे बस्तियों के हटाने में संजय का हाथ रहा जिसमे कथित तौर पर हजारों लोग बेघर हुए और सैकड़ों मारे गये और इस तरह देश की राजधानी के उन भागों में सांप्रदायिक कटुता पैदा कर दी और हजरों पुरुषों पर बलपूर्वक नसबंदी का परिवार नियोजन कार्यक्रम चलाया गया, जो प्रायश: बहुत निम्नस्तर से लागु किया गया था।
चुनाव
मतदाताओं को उस शासन को मंज़ूरी देने का एक और मौका देने के लिए गाँधी ने 1977 में चुनाव बुलाए। भारी सेंसर लगी प्रेस उनके बारे में जो लिखती थी शायद उससे गांधी अपनी लोकप्रियता का हिसाब निहायत ग़लत लगायी होंगी। वजह जो भी रही हो वह जनता दल से बुरी तरह से हार गयीं। लंबे समय से उनके प्रतिद्वंद्वी रहे देसाई के नेतृत्व तथा जय प्रकाश नारायण के आध्यात्मिक मार्गदर्शन में जनता दल ने भारत के पास "लोकतंत्र और तानाशाही" के बीच चुनाव का आखरी मौका दर्शाते हुए चुनाव जीत लिए। इंदिरा और संजय गांधी दोनों ने अपनी सीट खो दीं और कांग्रेस घटकर 153 सीटों में सिमट गई (पिछली लोकसभा में 350 की तुलना में) जिसमे 92 दक्षिण से थीं।
गिरफ्तारी और वापस लौटना
देसाई प्रधानमंत्री बने और 1969 के सरकारी पसंद नीलम संजीव रेड्डी गणतंत्र के राष्ट्रपति बनाये गए। गाँधी को जबतक 1978 के उप -चुनाव में जीत नहीं हासिल हुई उन्होंने अपने आप को कर्महीन आयहीन और गृहहीन पाया। 1977 के चुनाव अभियान में कांग्रेस पार्टी का विभाजन हो गया: जगजीवन राम जैसे समर्थकों ने उनका साथ छोड़ दिया। कांग्रेस (गांधी) दल अब संसद में आधिकारिक तौर पर विपक्ष होते हुए एक बहुत छोटा समूह रह गया था।
गठबंधन के विभिन्न पक्षों में आपसी लडाई में लिप्तता के चलते शासन में असमर्थ जनता सरकार के गृह मंत्री चौधरी चरण सिंह कई आरोपों में इंदिरा गाँधी और संजय गाँधी को गिरफ्तार करने के आदेश दिए जिनमे से कोई एक भी भारतीय अदालत में साबित करना आसन नहीं था। इस गिरफ्तारी का मतलब था इंदिरा स्वतः ही संसद से निष्कासित हो गई। परन्तु यह रणनीति उल्टे अपदापूर्ण बन गई। उनकी गिरफ्तारी और लंबे समय तक चल रहे मुकदमे से उन्हें बहुत से वैसे लोगों से सहानुभूति मिली जो सिर्फ दो वर्ष पहले उन्हें तानाशाह समझ डर गये थे।
जनता गठबंधन सिर्फ़ श्रीमती गांधी (या "वह औरत" जैसा कि कुछ लोगोने उन्हें कहा) की नफरत से एकजुट हुआ था। छोटे छोटे साधारण मुद्दों पर आपसी कलहों में सरकार फंसकर रह गयी थी और गांधी इस स्थिति का उपयोग अपने पक्ष में करने में सक्षम थीं। उन्होंने फिर से आपातकाल के दौरान हुई "गलतियों" के लिए कौशलपूर्ण ढंग से क्षमाप्रार्थी होकर भाषण देना प्रारम्भ कर दिया। जून 1979 में देसाई ने इस्तीफा दिया और श्रीमती गांधी द्वारा वादा किये जाने पर कि कांग्रेस बाहर से उनके सरकार का समर्थन करेगी रेड्डी के द्वारा चरण सिंह प्रधान मंत्री नियुक्त किए गये।
एक छोटे अंतराल के बाद उन्होंने अपना प्रारंभिक समर्थन वापस ले लिया और राष्ट्रपति रेड्डीने 1979 की सर्दियों में संसद को भंग कर दिया। अगले जनवरी में आयोजित चुनावों में कांग्रेस पुनः सत्ता में वापस आ गया था भूस्खलन होने जैसे बहुमत के साथ / महाभीषण बहुमत के साथ
इंदिरा गाँधी को (1983 - 1984)लेनिन शान्ति पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया था।
ओपरेशन ब्लू स्टार और हत्या
गांधी के बाद के वर्ष पंजाब समस्याओं से जर्जर थे। सितम्बर 1981 में जरनैल सिंह भिंडरावाले का अलगाववादी सिख आतंकवादी समूह सिख धर्म के पवित्रतम तीर्थ हरिमन्दिर साहिब परिसर के भीतर तैनात हो गया। स्वर्ण मंदिर परिसर में हजारों नागरिकों की उपस्थिति के बावजूद गांधी ने आतंकवादियों का सफया करने के एक प्रयास में सेना को धर्मस्थल में प्रवेश करने का आदेश दिया। सैन्य और नागरिक हताहतों की संख्या के हिसाब में भिन्नता है। सरकारी अनुमान है चार अधिकारियों सहित उनासी सैनिक और 492 आतंकवादी अन्य हिसाब के अनुसार संभवत 500 या अधिक सैनिक एवं अनेक तीर्थयात्रियों सहित 3000 अन्य लोग गोलीबारी में फंसे। जबकि सटीक नागरिक हताहतों की संख्या से संबंधित आंकडे विवादित रहे हैं इस हमले के लिए समय एवं तरीके का निर्वाचन भी विवादास्पद हैं। इन्दिरा गांधी के बहुसंख्यक अंगरक्षकों में से दो थे सतवंत सिंह और बेअन्त सिंह दोनों सिख। 31 अक्टूबर 1984 को वे अपनी सेवा हथियारों के द्वारा 1 सफदरजंग रोड नई दिल्ली में स्थित प्रधानमंत्री निवास के बगीचे में इंदिरा गांधी की राजनैतिक हत्या की। वो ब्रिटिश अभिनेता पीटर उस्तीनोव को आयरिश टेलीविजन के लिए एक वृत्तचित्र फिल्माने के दौरान साक्षात्कार देने के लिए सतवंत और बेअन्त द्वारा प्रहरारत एक छोटा गेट पार करते हुए आगे बढ़ी थीं। इस घटना के तत्काल बाद उपलब्ध सूचना के अनुसार बेअंत सिंह ने अपने बगलवाले शस्त्र का उपयोग कर उनपर तीन बार गोली चलाई और सतवंत सिंह एक स्टेन कारबाईन का उपयोग कर उनपर बाईस चक्कर गोली दागे। उनके अन्य अंगरक्षकों द्वारा बेअंत सिंह को गोली मार दी गई और सतवंत सिंह को गोली मारकर गिरफ्तार कर लिया गया।
गांधी को उनके सरकारी कार में अस्पताल पहुंचाते पहुँचाते रास्ते में ही दम तोड़ दीं थी लेकिन घंटों तक उनकी मृत्यु घोषित नहीं की गई। उन्हें अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में लाया गया जहाँ डॉक्टरों ने उनका ऑपरेशन किया। उस वक्त के सरकारी हिसाब 29 प्रवेश और निकास घावों को दर्शाती है तथा कुछ बयाने 31 बुलेटों के उनके शरीर से निकाला जाना बताती है। उनका अंतिम संस्कार 3 नवंबर को राज घाट के समीप हुआ और यह जगह शक्ति स्थल के रूप में जानी गई। उनके मौत के बाद नई दिल्ली के साथ साथ भारत के अनेकों अन्य शहरों जिनमे कानपुर आसनसोल और इंदौर शामिल हैं में सांप्रदायिक अशांति घिर गई और हजारों सिखों के मौत दर्ज किये गये। गांधी के मित्र और जीवनीकार पुपुल जयकर ऑपरेशन ब्लू स्टार लागू करने से क्या घटित हो सकती है इस सबध में इंदिरा के तनाव एवं पूर्व-धारणा पर आगे प्रकाश डालीं हैं।
निजी जिंदगी
इन्दिरा ने फिरोज़ गाँधी से विवाह किया। शुरू में संजय उनका वारिस चुना गया था लेकिन एक उड़ान दुर्घटना में उनकी मृत्यु के बाद उनकी माँ ने अनिच्छुक राजीव गांधी को पायलट की नौकरी परित्याग कर फरवरी 1981 में राजनीति में प्रवेश के लिए प्रेरित किया। इन्दिरा मृत्यु के बाद राजिव गांधी प्रधानमंत्री बनें। मई 1991 में उनकी भी राजनैतिक हत्या इसबार लिबरेशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल ईलम के आतंकवादियों के हाथों हुई। राजीव की विधवा सोनिया गांधी ने संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन को 2004 के लोक सभा निर्वाचन में एक आश्चर्य चुनावी जीत का नेतृत्व दिया।
सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री कार्यालय अवसर को अस्वीकार कर दिया लेकिन कांग्रेस की राजनैतिक उपकरणों पर उनका लगाम है प्रधानमंत्री डॉ॰ मनमोहन सिंह जो पूर्व में वित्त मंत्री रहे अब राष्ट्र के नेतृत्व में हैं। राजीव के संतान राहुल गांधी और प्रियंका गांधी भी राजनीति में प्रवेश कर चुके हैं। संजय गांधी की विधवा मेनका गांधी - जिनका संजय की मौत के बाद प्रधानमंत्री के घर से बाहर निकाला जाना सर्वज्ञात है - और साथ ही संजय के पुत्र वरुण गांधी भी राजनीति में मुख्य विपक्षी भारतीय जनता पार्टी दल में सदस्य के रूप में सक्रिय हैं।
जब साधुओं की लाशें उठाते हुए करपात्री महाराज ने इंदिरा गांधी को दे दिया था ‘शाप’
बताया जाता है कि महाराज से इंदिरा ने वादा किया था कि चुनाव जीतीं तो सारे गोकशी के अड्डों (अंग्रेजी हुकुमत के दौर से चलने वाले) को बंद करा देंगी। बाद में वह चुनाव तो जीत गईं, पर अपने वादे को लेकर स्पष्ट नहीं नजर आईं। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी कभी स्वामी करपात्री महाराज को खूब मानती थीं। पर उनका मान-सम्मान करने के बाद भी वह एक बार उनसे किए अपने वादे से मुकर गईं। नतीजतन स्वामी को आंदोलन का रास्ता अपनाना पड़ा। नौबत साधु-संतों और गोरक्षकों पर फायरिंग तक की आई, जिसके बाद संसद के सामने साधुओं की लाशें उठाते हुए करपात्री महाराज ने गांधी को शाप दे दिया था।
किस्सा 1965 के आसपास का है। देश में गोहत्या बंद कराने और गोरक्षा पर सख्त कानून लाने के लिए विशाल आंदोलन हुआ था। अगले साल संत इसी मांग को लेकर देश की राजधानी नई दिल्ली कूच कर गए थे। यह वह दौर था जब गांधी करपात्री महाराज का खासा सम्मान करती थीं। हालांकि यह भी कहा जाता है कि वह चुनावी दौर था। बताया जाता है कि महाराज से इंदिरा ने वादा किया था कि चुनाव जीतीं तो सारे गोकशी के अड्डों (अंग्रेजी हुकुमत के दौर से चलने वाले) को बंद करा देंगी। बाद में वह चुनाव तो जीत गईं पर अपने वादे को लेकर स्पष्ट नहीं नजर आईं।
तब करपात्री महाराज को सड़क पर आना पड़ा। लाखों साधु-संत गोहत्या और गोरक्षा के मुद्दे पर कानून की मांग को लेकर संसद के बाहर धरने पर आ गए। तारीख थी- सात नवंबर, 1966। करपात्री महाराज के तब साथ रामचंद्र वीर भी थे, जिन्होंने आमरण अनशन का ऐलान किया था। करपात्री महाराज व अन्य के नेतृत्व में जब संत संसद कूच कर रहे थे तब भारी संख्या में महिलाएं भी थीं। संसद के बाहर हरियाणा के करनाल ज़िले से जनसंघ के तत्कालीन सांसद स्वामी रामेश्वरानंद संतों से बोले कि संसद में घुसें और सांसदों को पकड़कर बाहर ले आएं तभी गोहत्या रोकने से जुड़ा कानून बनेगा।
बताया जाता है कि इंदिरा ने इस पूरे घटनाक्रम के बाद फायरिंग के आदेश दे दिए थे। अंधाधुंध गोलियां चलीं, जिसमें सैकड़ों साधु-संत और गोरक्षकों की जान गई थी। राजधानी में कर्फ्यू लगाने तक की नौबत आ गई थी। कई संत जेलों में बंद कर दिए गए थे। तब गृह मंत्री गुलजारी लाल नंदा थे, जिन्होंने मामले से क्षुब्ध होकर इस्तीफा दे दिया था। उन्होंने खुद को इसके लिए जिम्मेदार बताया था। कहा जाता है कि करपात्री ने तब इंदिरा को शाप दे दिया था कि जैसे उन्होंने साधुओं पर फायरिंग कराई है, ठीक ऐसा ही उनका भी हाल होगा। यह शाप उन्होंने संसद भवन के बाहर संतों-साधुओं की लाशें उठाते हुए दिया था। वह इस घटना के बाद अवसाद में चले गए थे।
गोरखपुर से छपने वाली मासिक पत्रिका ‘कल्याण’ में इस घटना के बारे में छपा था। पत्रिका में करपात्री महाराज के हवाले से इंदिरा गांधी के लिए छपा था- मुझे इस बात का दुख नहीं कि तूने निर्दोष साधुओं की हत्या कराई, बल्कि तूने गोहत्या करने वालों को छूट देकर पाप किया है। यह माफी के लायक नहीं है। गोपाष्टमी के दिन ही तेरे वंश का नाश होगा।