महाराणा विक्रमादित्य

  • Posted on: 23 April 2023
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विक्रमादित्य सिंह 

मेवाड़ के राणा 

शासनकाल 1531-1536 

पूर्वज रतन सिंह द्वितीय 

उत्तराधिकारी वनवीर सिंह 

रीजेंट रानी कर्णावती 

जन्म 1517 

1537 में मृत्यु हो गई 

मारवाड़ की राजकुमारी 

मेवाड़ के राजवंश सिसोदिया 

पिता राणा सांगा 

माता रानी कर्णावती 

विक्रमादित्य सिंह (1517 - 1536) मेवाड़ साम्राज्य के महाराणा थे वह एक सिसोदिया राजपूत और राणा सांगा के पुत्र और उदय सिंह द्वितीय के बड़े भाई थे। वह गुजरात सल्तनत से हार गया था और मेवाड़ के रईसों के साथ अपने गुस्सैल स्वभाव के कारण अलोकप्रिय था। अपने शासनकाल के दौरान 1535 में गुजरात के बहादुर शाह ने चित्तौड़ को बर्खास्त कर दिया था।

महाराणा विक्रमादित्य महाराणा सांगा के पुत्र थे और महाराणा रतन सिंह द्वितीय के भाई थे महाराणा रतन सिंह द्वितीय की मृत्यु के पश्चात और अपने पुत्र को फांसी पर चढ़ाने के बाद महाराणा रतन सिंह द्वितीय के अब कोई पुत्र न बचा था अतएवं उनके भाई महाराणा विक्रमादित्य सन् 1531 में राज्य सिंहासन पर बैठे। इस समय इनकी उम्र 14 वर्ष थी। इनके शासन-काल में घरेलू विरोध की आग बड़े जोर से धधकने लगी। भील भी उनसे नाराज़ रहने लगे। इस उपयुक्त अवसर को देख कर गुजरात के शासक बहादुर शाह जफर ने फिर मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया। यह बढ़ा भीषण आक्रमण था। शिसोदिया वीरों ने अपूर्व वीरत्व के साथ युद्ध किया।

विक्रम संवत के अनुसार 1581, हिजरी संवत के अनुसार 938 जबकि अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार सन 1531 ईस्वी में महाराणा विक्रमादित्य मेवाड़ की राजगद्दी पर बैठे।

राज्य के सरदारों और उमराव को जब लगने लगा कि यहां पर रहने से उनका उपहास होता है, इसलिए धीरे-धीरे वह अपने ठिकानों पर चले गए। इन हरकतों को देखकर मांजी हाड़ी ने महाराणा विक्रमादित्य को अपनी आदतों में सुधार का सुझाव दिया लेकिन कुछ भी असर नहीं हुआ।

बहादुर शाह जफर ने चित्तौड़ लूट कर अपने अधीन कर लिया, पर पीछे से बादशाह को महाराणा ने चित्तौड़ से निकाल दिया। महाराणा विक्रमादित्य अपने सरदारों के साथ अच्छा व्यवहार न करते थे, इससे एक समय सब सरदारों ने मिलकर उन्हें गद्दी से उतार दिया। उनके स्थान पर उनके छोटे भाई बनवीर, जो दासी पुत्र थे, राज्यासन पर बैठाये गये। ये बढ़े दुष्ट स्वभाव के थे। इन्होंने सरदारों पर अनेक अत्याचार करना शुरू किया।

इन्होंने अपने भाई भूतपूर्व महाराणा संग्रामसिंह को मारकर अपनी अमानुषिक वृत्ति का परिचय दिया। इतना ही नहीं, संग्रामसिंह के बालक पुत्र उदयसिंह पर भी यह दुष्ट हाथ साफ कर अपनी राक्षसी वृति का परिचय देना चाहता था। पर दाई पन्ना ने निस्सीम स्वामि-भक्ति से प्रेरित होकर बालक उदयसिंह को सुरक्षित स्थान पर पहुँचा दिया और उसके स्थान पर अपने निज बालक को सुला दिया। नराधर्म बनवीर ने दाई पन्ना के बालक को उदयसिंह जानकर मार डाला।

आसपास के सभी राजा महाराजाओं को यह पता लग चुका था कि महाराणा विक्रमादित्य  अयोग्य है। महाराणा विक्रमादित्य की कमजोरी का फायदा उठाने के लिए आसपास के कई राजा चित्तौड़ पर आक्रमण करने की फिराक में थे। गुजरात का बादशाह बहादुरशाह भी उनमें से एक था। महाराणा विक्रमादित्य की कमजोर हालत देखकर बहादुरशाह चित्तौड़ पर चढ़ाई करने के उद्देश्य से उसके सरदार “मोहम्मद आसेरी” को सेना सहित भेजा।

महाराणा विक्रमादित्य से परेशान होकर नरसिंह देव (महाराणा सांगा का भतीजा) और चंदेरी का राजा मेदिनीराय बहादुर शाह से जाकर मिल गए। इस समय इन्हें घर का भेदी कहा जाता था। गुजरात के बादशाह बहादुर शाह की इस कार्यवाही को देखते हुए महाराणा विक्रमादित्य ने अपने दूतों के जरिए संदेश भिजवाया कि मेवाड़ में मांडू के अधीनस्थ जितने भी जिले हैं उन्हें पुनः लौटा दिया जाएगा लेकिन बहादुर शाह नहीं माना।

नीमच में दोनों सेनाओं का आमना सामना हुआ। बहादुर शाह की विशाल सेना के सामने महाराणा विक्रमादित्य की सेना भागकर चित्तौड़ के किले में जा पहुंची और जितने भी सहयोगी सरदार थे वह अपनी-अपनी जागीरो में चले गए। इस तरह बहादुरशाह की सेना ने चित्तौड़ को चारों तरफ से घेर लिया।

महाराणा विक्रमादित्य के कुछ सहयोगी चित्तौड़ से सीधे दिल्ली जा पहुंचे और वहां पहुंच कर हुमायूं से मदद मांगी। हुमायूं महाराणा विक्रमादित्य की सहायता करने के लिए राजी हो गया और अपनी सेना के साथ दिल्ली से निकल पड़ा। जब हुमायूं ग्वालियर पहुंचा तब उसको बहादुर शाह की तरफ से एक पत्र मिला जिसमें लिखा था ” मैं जिहाद पर हूं तुम महाराणा विक्रमादित्य की सहायता करोगे तो भगवान के सामने की क्या जवाब दोगे?

इस समय मुस्लिमों में गजब की एकता थी हुमायूं और बहादुर शाह आपस में मिल गए, जिसकी वजह से हुमायूं ग्वालियर में ही रुक गया और मेवाड़ की सहायता किए बिना ही वापस जाने लगा। हुमायूं और बहादुर शाह के एक होने की खबर जब महाराणा विक्रमादित्य को लगी तो वह पुनः लौट गए।

दूसरी तरफ बहादुर शाह की गुजराती सेना ने चित्तौड़ को घेर लिया। 9 फरवरी 1533 ईस्वी में “भैरव पोल” नामक दरवाजे पर इन्होंने अपना अधिकार कर लिया। वीर मेवाड़ी सैनिकों ने गुजरात की सेना को यहां से आगे नहीं बढ़ने दिया। गुजरात का शासक बहादुरशाह भी सैनिकों के साथ यहां पर आ गया। जब हालात बिगड़ने लगे तो महारानी हाड़ी कर्मावती ने बहादुर शाह के पास संदेश भेजा की युद्ध को विराम दिया जाए।

कुछ शर्तों के साथ बहादुर शाह ने युद्ध रोक दिया। इन शर्तों में मालवा का जो प्रदेश पहले मेवाड़ के अधिकार क्षेत्र में था, उसे पुनः बहादुर शाह को सौंप दिया गया जबकि हाथी, घोड़े और नगद देकर बहादुर शाह को शांत किया।

इतिहासकार बताते हैं कि 24 मार्च 1533 को बहादुर शाह चित्तौड़ छोड़कर गुजरात की तरफ लौट गया। मेवाड़ पर आई इस भयंकर विपदा के बाद भी महाराणा विक्रमादित्य के स्वभाव पर कोई विशेष फर्क देखने को नहीं मिला, जिसके चलते नाराज होकर कई सरदार गुजरात के बादशाह बहादुर शाह की शरण में चले गए।

विक्रमादित्य की हत्या

1535 में हार के बाद भी विक्रमादित्य के स्वभाव में सुधार नहीं हुआ था और 1536 में एक दिन उन्होंने दरबार में एक सम्मानित पुराने सरदार का शोषण किया। इसने मेवाड़ के रईसों को विक्रमादित्य को महल की गिरफ्त में लेने के लिए प्रेरित किया पन्ना धाय के प्यार और वफादारी उदय सिंह को सिंहासन के उत्तराधिकारी के रूप में छोड़ दिया। वनवीर सिंह ने विक्रमादित्य के सैनिकों को ढूंढ़कर उनके खिलाफ कर दिया। वनवीर ने विक्रमादित्य की हत्या कर दी और उदयसिंह की हत्या का प्रयास किया। कथित तौर पर वह उदय सिंह के चाचा पृथ्वीराज का नाजायज पुत्र था। वनवीर जो स्वयं को सिंहासन का वास्तविक उत्तराधिकारी मानता था। एक शाम वह 1537 उन्होंने "दीपदान" नामक एक उत्सव का आयोजन किया और इसका पूरा लाभ उठाया। जब पूरा राज्य त्योहार मना रहा था उसने इसे सही समय पाया और कैद किए गए विक्रमादित्य की हत्या कर दी फिर अपनी महत्वाकांक्षा के लिए एकमात्र शेष बाधा 14 वर्षीय महाराणा-निर्वासत उदय सिंह से छुटकारा पाने के लिए रावल की ओर दौड़ पड़े। जिसमें वे पन्ना दाई की सजगता देशभक्ति और निष्ठा के कारण असफल रहे।

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