महाराणा कुम्भा

  • Posted on: 22 April 2023
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महाराणा कुम्भा 

शासनावधि 1433 - 1468 

राज्याभिषेक 1433 

पूर्ववर्ती - मोकल 

उत्तरवर्ती - ऊदा सिंह (उदयसिंह प्रथम) 

संतान -ऊदा सिंह, राणा रायमल, रमाबाई (वागीश्वरी) 

पूरा नाम 

कुम्भकर्ण सिंह 

राजवंश सिसोदिया राजवंश  

पिता राणा मोकल, मेवाड़ 

माता सौभाग्यवती परमार 

महाराणा कुम्भा या महाराणा कुम्भकर्ण (मृत्यु 1468 ई.) सन 1433 से 1468 तक मेवाड़ के राजा थे। भारत के राजाओं में उनका बहुत ऊँचा स्थान है। उनसे पूर्व राजपूत केवल अपनी स्वतंत्रता की जहाँ-तहाँ रक्षा कर सके थे। कुंभकर्ण ने मुसलमानों को अपने-अपने स्थानों पर हराकर राजपूती राजनीति को एक दोहरा रूप दिया। इतिहास में ये 'राणा कुंभा' के नाम से अधिक प्रसिद्ध हैं। महाराणा कुम्भा को चित्तौड़ दुर्ग का आधुनिक निर्माता भी कहते हैं क्योंकि इन्होंने चित्तौड़ दुर्ग के अधिकांश वर्तमान भाग का निर्माण कराया।

महाराणा कुंभा राजस्थान के शासकों में सर्वश्रेष्ठ थे। मेवाड़ के आसपास जो उद्धत राज्य थे उन पर उन्होंने अपना आधिपत्य स्थापित किया। 35 वर्ष की अल्पायु में उनके द्वारा बनवाए गए बत्तीस दुर्गों में चित्तौड़गढ़, कुंभलगढ़, अचलगढ़ जहां सशक्त स्थापत्य में शीर्षस्थ हैं वहीं इन पर्वत-दुर्गों में चमत्कृत करने वाले देवालय भी हैं। उनकी विजयों का गुणगान करता विश्वविख्यात विजय स्तंभ भारत की अमूल्य धरोहर है। कुंभा का इतिहास केवल युद्धों में विजय तक सीमित नहीं थी बल्कि उनकी शक्ति और संगठन क्षमता के साथ-साथ उनकी रचनात्मकता भी आश्चर्यजनक थी। ‘संगीत राज’ उनकी महान रचना है जिसे साहित्य का कीर्ति स्तंभ माना जाता है।

महाराणा कुम्भा कि उपाधियाँ :- अभिनवभृताचार्य, राणेराय, रावराय, हालगुरू, शैलगुरु, दानगुरु, छापगुरु, नरपति, परपति, गजपति, अश्वपति, हिन्दू सुरतान, नन्दीकेशवर, परम भागवत, आदि वराह।

महाराणा कुम्भकर्ण महाराणा मोकल के पुत्र थे और उनकी देहांत के बाद गद्दी पर बैठे। उन्होंने अपने पिता के मामा रणमल राठौड़ की सहायता से शीघ्र ही अपने पिता के हत्यारों से बदला लिया। इनके तीन संताने थी जिसमें दो पुत्र उदा सिंह , राणा रायमल तथा राणा एक पुत्री रमाबाई (वागीश्वरी) थे |1437 ई. में मालवा के सुलतान महमूद खिलजी को भी उन्होंने उसी साल सारंगपुर के पास बुरी तरह से हराया और इस विजय के स्मारक स्वरूप चित्तौड़ का विख्यात विजय स्तम्भ बनवाया। राठौडों के बढ़ते प्रभाव और हस्तक्षेप से आशंकित होकर चुण्डा को वापस बुलवाया गया जिसने रणमल को मरवा दिया और फिर कुछ समय के लिए मंडोर का राज्य भी मेवाड़ के अधिकार में आ गया। राज्यारूढ़ होने के सात वर्षों के भीतर ही उन्होंने सारंगपुर नागौर नराणा, अजमेर, मंडोर, मांडलगढ़, बूंदी, खाटू, चाटूस आदि के सुदृढ़ किलों को जीत लिया और दिल्ली के सुलतान सैयद मुहम्मद शाह और गुजरात के सुलतान अहमदशाह को भी परास्त किया। उनके शत्रुओं ने अपनी पराजयों का बदला लेने का बार-बार प्रयत्न किया किंतु उन्हें सफलता न मिली। मालवा के सुलतान ने पांच बार मेवाड़ पर आक्रमण किया। नागौर के स्वामी शम्स खाँ ने गुजरात की सहायता से स्वतंत्र होने का विफल प्रयत्न किया। यही दशा आबू के देवड़ों की भी हुई। मालवा और गुजरात के सुलतानों ने मिलकर महाराणा पर आक्रमण किया किंतु मुसलमानी सेनाएँ फिर परास्त हुई। महाराणा ने अन्य अनेक विजय भी प्राप्त किए। उसने डीडवाना(नागौर) की नमक की खान से कर लिया और खंडेला, आमेर, रणथंभोर, डूँगरपुर, सीहारे आदि स्थानों को जीता। इस प्रकार राजस्थान का अधिकांश और गुजरात, मालवा और दिल्ली के कुछ भाग जीतकर उसने मेवाड़ को महाराज्य बना दिया।

किंतु महाराणा कुंभकर्ण की महत्ता विजय से अधिक उनके सांस्कृतिक कार्यों के कारण है। उन्होंने अनेक दुर्ग मंदिर और तालाब बनवाए तथा चित्तौड़ को अनेक प्रकार से सुसंस्कृत किया। कुंभलगढ़ का प्रसिद्ध किला उनकी कृति है। बंसतपुर को उन्होंने पुनः बसाया और श्री एकलिंग के मंदिर का जीर्णोंद्वार किया। चित्तौड़ का कीर्तिस्तम्भ तो संसार की अद्वितीय कृतियों में एक है। इसके एक-एक पत्थर पर उनके शिल्पानुराग वैदुष्य और व्यक्तित्व की छाप है। अपनी पुत्री रमाबाई ( वागीश्वरी ) के विवाह स्थल के लिए चित्तौड़ दुर्ग में श्रृंगार चंवरी का निर्माण कराया तथा चित्तौड़ दुर्ग में ही विष्णु को समर्पित कुम्भश्याम जी मन्दिर का निर्माण कराया।

मेवाड़ के राणा कुम्भा का स्थापत्य युग स्वर्णकाल के नाम से जाना जाता है क्योंकि कुम्भा ने अपने शासनकाल में अनेक दुर्गों मन्दिरों एंव विशाल राजप्रसादों का निर्माण कराया कुम्भा ने अपनी विजयों के लिए भी अनेक ऐतिहासिक इमारतों का निर्माण कराया वीर-विनोद के लेखक श्यामलदस के अनुसार कुम्भा ने कुल 32 दुर्गों का निर्माण कराया था जिसमें कुभलगढ़, अलचगढ़, मचान दुर्ग, भौसठ दुर्ग, बसन्तगढ़ आदि मुख्य माने जाते हैं तथा कुम्भा के काल में धरणशाह नामक व्यापारी ने देपाक नामक शिल्पी के निर्देशन मे रणकपुर के जैन मदिंरो का निर्माण करवाया था।

राणा कुम्भा बड़े विद्यानुरागी थे। संगीत के अनेक ग्रंथों की उन्होंने रचना की और चंडीशतक एवं गीतगोविन्द आदि ग्रंथों की व्याख्या की। वे नाट्यशास्त्र के ज्ञाता और वीणावादन में भी कुशल थे। कीर्तिस्तम्भों की रचना पर उन्होंने स्वयं एक ग्रंथ लिखा और मंडन आदि सूत्रधारों से शिल्पशास्त्र के ग्रंथ लिखवाए। इस महान राणा की मृत्यु अपने ही पुत्र उदयसिंह के हाथों हुई।

महाराणा कुम्भा एक महान शासक, महान सेनाध्यक्ष, महान निर्माता तथा वरिष्ठ विद्वान् था वह राणा कुम्भा वीर तथा साहसी था ! उसका पिता उसके लिये मेवाड़ पर चारों तरफ से मंडराते विपत्ति के बादल छोड़ गया था ! उसने धैर्य व साहस के साथ आन्तरिक विद्रोहों का दमन किया ! मेवाड़ पर राठौड़ों के बढ़ते हुए प्रभाव को समाप्त किया ! तथा विदेशी मुसलमानों के आक्रमण का उसने सफलतापूर्वक सामना किया !

अपने शासन के दीर्घ काल तक उसने मालवा व गुजरात के मुस्लिम शासकों का डटकर मुकाबला किया ! और बून्दी के हाड़ा,सिरोही के देवड़ा तथा सोजत व मण्डौर के राठौड़ राजपूत ठिकानों को परास्त कर ! उन्हें अपनी अधीनता स्वीकार करने को बाध्य किया !

अपने राज्य को विस्तृत किया इतना विस्तृत राज्य मेवाड़ में पहले किसी का नहीं था ! इसी कारण कुम्भलगढ़ प्रशस्ति में उसे धर्म और पवित्रता का अवतार कहा गया है ! साँगा तथा राजसिंह की ख्याति की आधारशिला कुम्भा के समय में ही डाली गई थी ! इतिहास के अनुसार उसने अपने राज्य को सुदृढ़ दुर्ग द्वारा सम्पन्न बनाया और ख्याति अर्जित कर ! अपने नाम को चिर-स्थायी बना लिया !

जहाँ राणा अपने राज्य की रक्षा के लिए सजग था वहीं वह प्रजा हित के लिए भी जागरूक था ! युद्धों में निरन्तर व्यस्त रहने के उपरान्त भी उसने जनहित की दृष्टि से अनेक जन-कल्याण-कार्यों को सम्पूर्ण किया ! उसने जल-व्यवस्था के लिए अनेक तालाबों, कुण्डों, कूपों तथा बावड़ियों का निर्माण करवाया ! वह दानवीर भी था उसकी तुलना राजा भोज तथा कर्ण जैसे दानवीरों से की गई है !

इसलिए  कुम्भलगढ़ प्रशस्ति में कवियोंने उसे प्रजापालक तथा महान दानी कहा है ! धार्मिक क्षेत्र में वह निःसन्देह एक धर्म परायण व्यक्ति था, परन्तु अन्य धर्मों के प्रति भी वह सहिष्णु था ! उसने मुसलमानों पर कभी केवल विधर्मी होने के नाते अत्याचार नहीं किये ! और कुम्भा वंश परम्परा से शैव-मत का मानने वाला था ! तथा उसने वैष्णव धर्म के प्रति भी उतनी ही श्रद्धा व्यक्त की !

आबू तीर्थ पर जाने वाले जैन यात्रियों से जो कर लिया जाता था वह कर उसने समाप्त कर दिया ! उसने जैन, शैव तथा वैष्णवमन्दिरों का निर्माण करवाया ! वास्तव में उसकी नीति सर्वधर्म-समभाव की नीति थी ! महाराणा कुम्भा में लोकप्रियता के गुण विद्यमान थे ! वह प्रजा की सुविधाओं तथा भावनाओं की ओर ध्यान देता था ! इसलिए प्रजा भी उसमें श्रद्धा रखती थी ! वास्तव में कुम्भा का व्यक्तित्व सर्वतोमुखी था ! अपनी महानता दर्शाने हेतु उसने अपने को कई ! 

आर्थिक दृष्टि से भी महाराणा कुम्भा के समय में मेवाड़ अत्यधिक समृद्धशाली था ! उसके शासनकाल में व्यापार तथा वाणिज्य की पर्याप्त उन्नति हुई ! महाराणा कुम्भा के अच्छे शासन के कारण बहुत से बड़े-बड़े व्यापारी बाहर से आकर मेवाड़ में बस गये थे ! इस समय चित्तौड़, देलवाड़ा, भीलवाड़ा, मांडलगढ़, बदनौर, केलवाड़ा, सज्जनपुर, आघाट यह प्रमुख व्यापारिक नगर थे ! वास्तव में यही आर्थिक समृद्धि मेवाड़ की कला तथा साहित्य के विकास के लिए उत्तरदायी थी ! कुम्भा एक सफल सेना नायक ही नहीं, एक कुशल राजनीतिज्ञ तथा कूटनीतिज्ञ भी था ! राजपूत वीरों की तरह युद्ध में लड़ते-लड़ते मर जाने में ही उसका विश्वास नहीं था !

कुम्भलगढ़ प्रशस्ति के अनुसार महाराणा कुम्भा युद्ध में साम-दाम-दण्ड-भेद की नीति का प्रयोग करता था ! आवश्यकता पड़ने पर वह गुरिल्ला-पद्धति का अनुसरण करते हुए पहाड़ों में छिपकर शत्रु पर अचानक आक्रमण करता था ! अपने शासन के प्रारम्भिक काल में गुजरात तथा मालवा की शत्रुता का लाभ उठाकर, उसने गुजरात में ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर दी ! कि गुजरात का सुल्तान मेवाड़ पर आक्रमण कर ही नहीं सका ! गुजरात के सुल्तान को मेवाड़ पर कभी आक्रमण नहीं करने दिया !

उसके शत्रु दिल्ली तथा गुजरात के सुल्तानों तक ने उसे हिन्दू सुरत्ताण की उपाधि दी थी ! उसने अपने शत्रुओं को कभी एक-दूसरे से नहीं मिलने दिया ! वह राज्य को आवश्यकता से अधिक बढ़ाने में भी विश्वास नहीं रखता था ! उसने जीते हुये प्रदेशों को वापिस लौटाकर वहाँ से केवल वार्षिक कर लेना स्वीकार किया ! वह प्रदेश है बून्दी, सिरोही, नागौर इन राज्यों को अपने राज्य में नहीं मिलाया ! कुम्भा एक व्यावहारिक राजनीतिज्ञ था ! वह जानता था कि मेवाड़ की शक्ति एवं साधन दूरस्थ प्रान्तों को अपने नियोजनाये रखने के लिए पर्याप्त नहीं है !

कुम्भा के सामने राघवदेव को मरवा दिया 

राणा उसके प्रभाव में आ गया और एक दिन अंगरखा पहनते समय ! राघवदेव को महाराणा कुम्भा के सामने ही दो राजपूतों द्वारा रणमल ने मरवा दिया ! इसके अलावा जब रणमल ने राठौड़ सैनिकों में वृद्धि करना आरम्भ कर दिया ! तो राणा कुम्भा उसकी शक्ति से और भी भयभीत हो गया ! उसे डर था कि अगर वह रणमल की शक्ति को कम नहीं करेगा तो स्थानीय सरदारों में असन्तोष बढ़ जायेगा ! ऐसी स्थिति में महाराणा कुम्भा को अपने राज्य में उनसे कोई सहयोग नहीं मिल सकेगा ! अत: कुम्भा ने रणमल के विरुद्ध सिसोदिया गुट का समर्थनकरना शुरू कर दिया ! उसने अपने विरोधी चाचा के पुत्र अक्का व महपा पंवार को क्षमादान देकर !

शरणागत के रक्षक राणा कुम्भा 

उन्हें मांडू से चित्तौड़ लौटने की अनुमति दे दी ! मेवाड़ में वह रणमल के बढ़ते प्रभाव से दुःखी होकर महपा और एक्का स्वयं मालवा से आकर महाराणा के चरणों में आ गिरे ! और अपने अपराध की क्षमा माँगी ! महाराणा कुम्भा ने उन्हें क्षमा कर दिया उनका मेवाड़ आना रणमल को अच्छा नहीं लगा ! जब इस विषय में रणमल ने महाराणा से अर्ज किया तो प्रत्युत्तर में उन्होंने कहा हम शरणागत के रक्षक कहलाते हैं ! ये हमारी शरण में आ गये हैं और हमने इनको क्षमा कर दिया है ! इसके बाद चूण्डा भी मेवाड लौट आया !

अन्त में स्थानीय सरदारों ने रणमल की प्रेमिका भारमली की सहायता से ही 1438 ई. में उसकी हत्या करवा दी ! कहा जाता है कि भारमली ने शराब पिलाकर पहले अपने प्रेमी रणमल को बेसुध कर दिया ! उसके बाद उसे पलंग से बंधवा कर वध करवा दिया ! महाराणा ने रणमल का प्रत्यक्ष रूप से तो कोई विरोध नहीं किया ! किन्तु सरदारों के द्वारा की जाने वाली दलबन्दी का समय-समय पर वह समर्थन करता रहा ! बिना कुम्भा की आज्ञा के अक्का व चूण्डा का मेवाड़ लौटना सम्भव नहीं था ! अपनी दूरदर्शिता के परिणामस्वरूप वह सफल हुआ ! 

महाराणा कुम्भा की मृत्यु

महाराणा कुम्भा जैसे महान तथा प्रतिभा-सम्पन्न राणा के जीवन का अन्त बहुत ही करुणाजनक था ! जीवन के अन्तिम दिनों में वह मानसिक दृष्टि से विक्षिप्त हो गया था ! इसका कारण उसको मानसिक रोग होना था वह योग्य उत्तराधिकारी अभाव से भी विक्षुब्ध था ! ऐसी अवस्था में महाराणा कुम्भा के बड़े पुत्र उदा (उदयकरण) ने सिंहासन पर अधिकार करने का निश्चय किया ! और जब एक दिन कुम्भा कुम्भलगढ़ दुर्ग में स्थित भामादेव के मन्दिर के निकट ईश्वर भक्ति में मग्न बैठा था ! तब उदा ने पीछे से राणा पर कटार का वार कर, 1468 ई. में उसकी हत्या कर दी !

कुछ विद्वानों की यह मान्यता है कि कुम्भा के चाचाओं ने उदा को इस निकृष्ट कार्य करने के लिए उकसाया था ! महाराणा कुम्भा की मृत्यु के साथ ही मेवाड़ की कला, साहित्य, राजपूत शौर्य इन सभी की परम्परा में अवरोध उत्पन्न हो गये ! राणा कुम्भा की मृत्यु के साथ ही मेवाड़ की इस सर्वतोमुखी उन्नति का अन्त दिखाई देता है ! यह सांस्कृतिक विकास आगे चलकर राजसिंह के समय में फिर दिखाई देने लगा था ! 

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